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ख्वाब

दास्तां - ए - नादां
दास्तां - ए - नादां
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मेरे घर के पीछे
कभी सूरज निकलता था
चहचहाती थी चिड़िया, और
महकता बाग़ होता था ……….. !!
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भगत को भजते – गाते लोग
जाते थे गंगा तट की ओर
बजते थे मंदिरों में ढोल
ऐसे को कहते थे कभी भोर
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शाम को घर में सबका होना
बाबूजी संग चाय और चबेना
रात को काली मंदिर जाना
अजब से इक सुकून का होना
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शहर में बाग़ होते थे
आम के मंजर महकते थे
कभी कोयल भी गाती थी
बिना डर लोग टहलते थे
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बड़ी छोटी थी दुनिया तब
जाने पहचाने से थे सब
दलानों पर की मज्लिशैं
न होती थी दीवाली कब
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ये कैसी नींद है आयी
ये कैसा ख्वाब है आया
जगा दो कोई मुझको भाई
सुबह है फिर से जो आयी

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उत्पल कान्त मिश्र “नादाँ”
मुंबई

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