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जीवन संग्राम

दास्तां - ए - नादां
दास्तां - ए - नादां
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(चित्र मेरे मित्र श्री महेश सिंह से साभार)

हे रति !
एक बार पुनश्च
तुझको करना होगा त्याग विलाप
दग्धदेह, अरूप, चिरजीवित का संपोषण
सृजनशील लास्य से करना होगा

    पिनाकिना का शक्ति उन्माद
    नाग फणी सम करता निन्नाद
    भाग्न्मनोरथा हो रही सती फिर
    काम देव का निकट विनाश !

गर्वोन्मत्त शव का शिवं – हास
त्रिनेत्र किन्तु हा ! अंध भास
कामदेव के दग्ध पुष्प वाण
जाज्वल , विदेह फिर तेरा नाथ

    शक्ति धरती है विद्रूप रूप
    यही मही का सत्य रूप
    तप – ताप, दग्ध मृदु करुण भाव
    पशुपति में करो स्नेह – संचार

हे रति
गर्भित कर दो नृत्य प्रधान …………… !!

    अरी मेनका
    धर लो सोलह श्रिंगार भाव

निर्निमेष, हठधर्मी सम बैठा
चिदाकाश धारे विश्वामित्र अकेला
पृथ्वी की चिंता रेखाओं का
स्वर्ग लोग में हुआ वितान

    हस्त कम्पन में वज्र हुआ
    ऐरावत भी सहम रहा
    शुक्र, गुरु स्तब्ध हुए
    एक बार पुनश्च
    भय का अवसान हुआ

री मेनका
याद तेरी अब आई
अरी वासना की व्याली
लास्य नृत्य मुद्रा वाली
रति मही पर सबको भायी

    अहम्, शक्ति, भय, वासना
    मोह, जीवन के आधार
    भो – धरा श्मशान किया
    सदियों से, क्या पाया ……….. ??

रे मानव
अब तो बुद्ध बनो …………. !!!


    उत्पल कान्त मिश्र “नादाँ”

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